Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २११
३०. ।इक पीर दा संसा दूर कीता॥
२९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>३१
दोहरा: श्री गुर हरि गोबिंद के, नदन बंदन जोग।
तेग बहादर धरम धुर, सदा रहैण ब्रिति जोग१ ॥१॥
चौपई: मंदिर सुंदर हेत करावनि।
श्री गुर शिलपी२ करे अवाहनि३।
ब्रिंद मजूर बुलाइ लगाए।
धरमसाल को बोणत बनाए ॥२॥
दार४ बिलद सुगंधति ब्रिंद।
नाना चिज़त्रति बन अरबिंद।
सुघरन घरि घरि घर घर दारा५।
करी सुहावन अनिक प्रकारा ॥३॥
चारु चौणक चौकोन अकार।
रचो फरश इत अुत दरबार।
रुत शटनि महि सभि सुखदायक।
सुंदर बनोण देखिबे लायक ॥४॥
इक ध्रमसाल*बिदेशनि हेतु६।
इक रहिबे हित बने निकेत।
एक पीर कित गमनति जाई।
थल अनदपुरि पहुचो आई ॥५॥
चिनती लगी देखि करि सोइ।
रचना रुचिर बजारनि जोइ।
किनहु कीन इह? पूछति भइअू।
सुनति शिलपीयनि अुतर दइअू ॥६॥
शण्री गुर हरिगुविंद कुल चंदु।
तिन के तेग बहादर नद।
१नावेण गुरू जो धरम दा आसरा हन परमातमा विज़खे जुड़ी ब्रिती विज़च सदा रहिदे हन।
२कारीगर।
३बुलाए।
४लकड़ीआण।
५सुघड़ (कारीगराण ने) घड़ घड़ के घराण घराण दे दरवाग़े भाव कारगीराण ने लकड़ीआण घड़ के
चिज़त्रकारी वालीआण बनाके दराण दे बूहे बनाके धरमसाल सजाई।
*इथे इस तोण मुराद गुरदवारा नहीण पर अुतारे दे थां दी है।
६विदेशीआण वासते।