Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २१४
लगे मजूर करति हैण कारे।
केतिक करे निकेत सु तारे।
श्री अंगद सुनि भए प्रसंन।
पुरखा! अबि ऐसे बच मंनि ॥३०॥
निज परवार हकारहु सारा।
बसहु तहां सुख लहहु अुदारा।
अपर जि आवहिण बसिबे कारन।
तिनहिण बसावहु सदन अुसारन ॥३१॥
बास तुमार समीप हमारे।
मिलहु चहहु रहि सदन मझारे।
अबि बासरके ग्रामसिधारहु।
मिलहु सभिनि सोण करि हितकारहु१ ॥३२॥
चिरंकाल बीता तुझ आए।
नहिण कुटंब सोण मिलो सिधाए२।
ले आवहु, जावहु ततकाल।
करहु बास अबि गोइंदवाल ॥३३॥
आइसु पाइ गुरू की गए।
सभि लोकन संगि मिलते भए।
गुर प्रसंन भे कथा सुनाई।
दई मोहि सभि भांति बडाई ॥३४॥
अबि गुर हुकम भयो इस ढाल।
-बसहु जाइ करि गोइंदवाल-।
देरि न करहु चलहु मम संग।
पुरि सुंदर घर होहिण अुतंग३ ॥३५॥
जेतिक माने बाक भने जबि।
अुठि श्री अमर संगि भे सो सभि।
पहुणचे गोइंदवाल सु जाइ।
बसे ठानि रुच सभि सुख पाइ ॥३६॥
(अ) अुह काज सौर गिआ ते शहिर वस गिआ है।
१भाव हित पूरबक।
२जा के नहीण मिले।
३अुज़चे घर।