Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) २१२२७. ।भीमचंद दा वग़ीर आया॥
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दोहरा: भीमचंद कहिलूरीआ, सैल नरिंद बिलद१।
सुनि सतिगुर के सुजसु को, रिदे बिसाल अनद+ ॥१॥
चौपई: सचिवन संग मंत्र पुन करो।
संधि बिखे गुन ब्रिंद बिचरो।
सुनहु वग़ीर! प्रथम तहि जईऐ।
भेत सकल बातनि ते पईऐ ॥२॥
हम कंनै२ कहु टेकन माथा।
पुन गुर साथ मेल की गाथा।
-अपर नरेशन सम३ हम नांही।
सदा बास बासहि पुरि पाही४ ॥३॥
अनिक बिधिनि के राजनि काज।
परहि आन जुति चमूं समाज।
संधि करे सुधरहि५ दुहूं ओर।
घाल सकहि नहि शज़त्र ग़ोर ॥४॥
सभि ही रीति होइ हम आछे।
बनहि सहाइक जबहूं बाछे-।
जे सनमानहि मोहि मिलाप।
पहुंच आप की लीजै थापि६ ॥५॥
अपनो ओज प्रताप दिखावहु।
न्रिप सभि ते बडिआइ बतावहु।
इज़तादिक कहि अनिक प्रकारी।
पठो वग़ीर गिरेश हंकारी ॥६॥
मानव ब्रिंद संग करि दीने।
रजत लशटकाकर गहि लीने।
१पहाड़ी राजिआण विचोण वज़डा (राजा)।
+पा:-अनद अमंद।
२साडी तरफोण।
३(ते होर इह गलां जंाओ कि) असीण होर राजिआण वाणू नहीण।
४(असीण) (आपदे) नगर दे पास ही सदा वज़सं वाले हां।
५सुधरनगे।
६मेरे मिलाप दा सतिकार करन तां साडी पुहंच थाप लवीण (कि आपां किस दिन पहुंचंा है) (अ)
पहुंच के आप दी थापी लवाणगे।