Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३३
४. ।बिधीचंद। बालू हसना। पैणदे दे घर पुज़त्र होणा॥
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दोहरा: सहिज सुभाइक सतिगुरू, गए महिल के मांहि।
बिधीचंद को संग ले, बैठे तहां सुहाहि ॥१॥
चौपई: तबहि नानकी अरु मरवाही।
बैठी आइ बंदि कर पाही।
मुसकावति बूझति गुर संगा।
बिधीचंद तुमरो सिख चंगा ॥२॥
भा अवतार आप को भारा।
कलि महि कुटिल करे निसतारा।
बनो सिज़ख रावर को आइ।
तअू सुभाव न पलटो जाइ ॥३॥
चोरी करति हेतुअुपकारे।
गुर के कारज अनिक सुधारे।
बिधीचंद भाई! हित धरे।
अपर करम जो किछ तैण करै ॥४॥
करहु सुनावनि हम को सोइ।
जिन सुनिबे मन अचरज होइ।
तोहि समान सुनो नहि काना।
किम देखनि महि आवहि जाना१* ॥५॥
तुझ सम इक तुझ ही कअु जाना।
अपर करो सो करहु बखाना।
सुनि बिधीए कर जोरि सुनायो।
सुनहु मात! इक करम कमायो ॥६॥
श्री अरजन मुझ संग अुचारा।
-तुव सिर चोरी लेख अुदारा।
जे अबि चहहु२ करहु अुपकारा।
पर धन आप न लिहु कर धारा३- ॥७॥
इम सुनि मैण इक के घर गयो।
१तेरे जिहा (कोई होर) कंनीण नहीण सुणिआण, देखं ते जाणन विच कीकूं आ सके।
*पा:-नहि देखन नहि आइस जाना। पुना: किम देखन नहि आवहि जाना।
२(चोरी करनी) चाहवेण तां।
३पराए धन ळ आप हज़थ नां लाईण अथवा धारन ना करीण।