Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २१८
जहां अराधहिण करि कै प्रेम।
तहिण मैण पहुचोण इह मम नेम ॥७॥
आज बैठि करि तोहि अराधो१।
आयो तुरत प्रेम ते बाधो२।
मो ते रहो जात तबि नांही।
प्रेम समेत धाइ३ मन मांही ॥८॥
तुव हित करि४ आयो इत ओर।
चलहु दिखावहु अपनी ठौर।
हाथ गहे आगे तबि चले।
करे दिखावन कीन जु भले५ ॥९॥
भली प्रकार हेरि करि सारे।
बहुर बिपासा तीर सिधारे।
अमरदास अपने संग लीने।
जाइ कूल पर गुरू असीने ॥१०॥
अपर दास नहिण पास तिथाईण।
इक श्री अमर कि आप गुसाईण।
सलिता कूल सथित को जानि६।
जलपति प्रापति भा७ तिस थान ॥११॥
रुचिर जातकी सफरी एका८।
आगे धर करि मसतक टेका।
श्री प्रभु कीन पुनीत सथाना।
पद पंकज परसे जबि आना ॥१२॥
सलिता कूल बसायो पुरि को।
करो अनुग्रहु अपने अुर को।
सतिसंगत सिमरहिण सतिनामू।
१तूं आराधना कीती है।
२बंन्हिआण।
३भाव जदोण कोई धिआवै।
४तेरे प्रेम करके (अ) तेरे विच हित करके।
५अुसारे सन जेहड़े चंगे (घर)।
६नदी किनारे बैठे जाणके।
७वरुं आइआ।
८चंगी किसम दी इक मज़छी।