Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) २१६
२८. ।अनदपुर तजं दीआण सलाहां। बिदावा॥
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दोहरा: सुनि सभि ते सतिगुर कहो, इह दरो१ की बात।
बंचकता तुम करति हो, राज तेज हुइ घात ॥१॥
चौपई: जिम आगे सभि कीनसि आन।
बहुर बिनाशो धरम इमान।
निज ते प्रथक बनाइ लुटेरे।
नरक सहेरो कशट बडेरे ॥२॥
इम ही राज तेज तुम हारो।
जग ते सफा अुठहि इकबारो।
इम कहि तूशन भए गुसाईण।
हारेकहि वकील समुदाई ॥३॥
श्री गुजरी ढिग सुधि तबि गई।
दूतनि कही सु अनबन भई।
नहि मानहि कलीधर किस की।
तिन सोण बोलहि बानी रिस की ॥४॥
सुनि कै अपने निकट हकारे।
सगले माता पास पधारे।
कहिवत२ शाहु गिरेशनि केरी।
सरब वकीलनि भाखी फेरी ॥५॥
सुनहु मात! परतीत करीजै।
सभि की कही साच लखि लीजै।
सतिगुर नहि मानहि, कहि रहे।
प्रथम बारता पर रिस लहे ॥६॥
सरब लुटेरे कैद परे हैण।
दंड सासना देनि करे हैण।
अबि कर जोरि खता बखशावैण।
तअू नहीण मन महि कुछ लावैण ॥७॥
सुनि करि माता अुर बिरमाई।
-एती सपथ साच इन खाई-।
१झूठ।
२आखी होई गल, सुनेहा।