Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 205 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२०

तूरन करि कै इहां लिआवो।
हुतो दूर इक सिज़ख बुलायो।
तिस को दे करि नगर पठायो ॥१७॥
लायो तुरत तार करि सोई।
डालि मसाले तलि कै भोई।
ले श्री अमर अगारी धरी।
सो ले करि गुर खावन करी ॥१८॥
महां साद इस आमिख भयो।
आगे कबहुण न ऐसे खयो।
कहि श्री अमर जाति झख१ कोई।
लायो बरन आप हित सोई ॥१९॥अपर अहार कुछक तहिण खाइ।
बहुर अुठे तहिण ते सुखदाइ।
अमरदास को ले करि साथ।
आए दिश खडूर जगनाथ ॥२०॥
केतिक दिन समीप ही राखे।
जानि रिदे की तिन अभिलाखे।
सभि समीप की सेवा करे।
अशट पहिर सिमरन अुर धरे ॥२१॥
दीनसि आइसु बहुर क्रिपाल।
चलि आए तबि गोइंदवाल।
पाछल दिश को गमनैण राहू।
मुख राखैण सतिगुर दिश जाहू ॥२२॥
तीन कोस पर माथो टेकि।
पुन पुरि दिश मुख कोस सु एक।


प्रहेग़ करन वाले लिखारी या मुज़द्रित करता ने बदलवाइआ है। गुर सिज़खी विच मास दा झगड़ा
नहीण है मासु मासु करि मूरखु झगड़े। भाई संतोख सिंघ जी पिज़छोण गुरू जी दे लगर विच महां
प्रशाद दा ग़िकर कर आए हन। साडा मतलब एथे मास ळ विहत अविहत सिज़ध करने तोण नहीण,
पर ग्रंथ दे पाठ शुध करन तोण है।
इस सपशट टिकाणे तोण सिज़ध हो गिआ कि इस महान ग्रंथ विच आखेप हो चुज़के हन। जो
सज़जं खिआल करदे हन कि इस विच आखेप नहीण होए ओह इस इज़के टिकाणे तोण तसज़ली करसकदे हन।
१मज़छी।

Displaying Page 205 of 626 from Volume 1