Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२२
जिस को काल सकहि नहिण खाइ ॥२९॥
जिम रज़जू अहि की आधार।
तिम प्रपंच इहु तिसहि मझार।
सूरज आदि जोति की जोति।
जिस अलब करि सकल अुदोति१ ॥३०॥
सूखम ते सूखम निति रहै।
इंद्रै जुति मन जिस नहिण लहै२।
सदा महिद ते जो महीआन३।
पार न पावहिण शकतीवान ॥३१॥
प्रगट बिसाल जानीअति ऐसे।
जिस बिन फुरहि निमेख४ न कैसे।
दुरो महान, न जानो जाइ।
रूप रंग कुछ है न लखाइ ॥३२॥
अचरज रूप जु ऐसो अहै।
तिस को नाम वाहि करि कहैण गो।
तम जड़ अगान अनित।
करि प्रकाश चेतन रू नित*॥३३॥
ऐसो नाम वाहिगुरू जोई।
स्री अंगद बपु धरि करि सोई।
जगत बिखै बनि भगति दिखावैण।
नहिण सरूप अपनो बिदतावैण ॥३४॥
करनो सिमरन श्री सतिनाम।
अुपदेशति जग को बसि धाम।
सति संगति सेवन सिखरावैण।
भाअु भगति की रीति चलावैण ॥३५॥
श्री परमेशुर के हम दास।
निरहंकार अलोभ निरासु।
१प्रकाशत हैन।
२मन इंदरीआण समेत जिस (ब्रहम) ळ लख नहीण सकदा।
३बड़िआण तोण बड़ा ।संस: महत॥ (अ) महितत तोण जो होर वडा (या महां तज़त) है, भाव चेतन रूप।
४पल मात्र (कुछ) नहीण फुर सकदा। (अ) किसे तर्हां पल मात्र लई बी जिस बिन नहीण फुर सकदा
(फुरना)। (ॲ) जिस तोण बिनां पलकाण नहीण झमक सकदीआण, भाव अज़ख नहीण फरकदी।
*अरथां लई देखो श्री गुरू नानक प्रकाश पूरबारध अधाय १ अंक ६३।