Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२३
परमेशुर भांा शुभ भावन।
कायां ते हंता सु अुठावन ॥३६॥
नित संतनि की सेवा करनी।
सति संगति महिण चित ब्रिति धरनी।आपा नहीण जनावन करनो।
दासन दास दास निज बरनो१ ॥३७॥
परम प्रेम परमेसुर मांही।
बिनती करन, -सु मैण कुछ नांही२।
करन करावन को इक दाता।
पूरन सरब ठौर सो जाता३- ॥३८॥
शबद गुरू के गावन करने।
किधौण शबद धुनि श्रोननि धरने४।
निस दिन सिमरहु श्री सतिनाम।
दुहि लोकनि को पूरति कामु ॥३९॥
इस बिधि अपनो आप छपाइ।
नहिण कैसे जग महिण बिदताइ।
जो नर अति प्रेमी सिख आहि।
कहिन सुनन श्री मुख करि तांहि५ ॥४०॥
लछमी निति सेवति दरबार।
सिज़धां६ पद अरबिंद जुहार७।
नौ निधां कर जोरि खरी हैण।
गुर आइसु अनुसार धरी हैण८ ॥४१॥
अपर जि शकता९ अनिक प्रकारै।
चहुणदिश गुर कै निति परवारैण१०।
१आपणे ताईण दासां दा दास वरणन करना।
२कि मैण कुछ नहीण।
३जाणीदा है।
४सुणने।
५भाव अुस नाल गज़ल बात करदे हन।
६सिज़धीआण।
७नमसकार करदीआण।
८गुरू आगिआ दे अनुसारी हो रहीआण हन।
९ताकतां।
१०दुआलेरहिणदीआण हन।