Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२६
दे धन धान सु बिनै अुचरिहीण।
तहां बास गुर अंगद केरा।
नहीण महातम लखहिण घनेरा ॥७॥
कबहि न जाइ निवावहिण सीस।
नहिण मानहिण -इह सभि जग ईश-।
अपर लोक जिम* बासहिण ग्राम।
तोण जानहिण इह भी रहिण धाम ॥८॥
सतिसंगी जिन महिण नहिण कोई।
किमि प्रभाव को जानहिण सोई।
केतिक समां बितीतन भयो।
बरखा बिना, समैण तबि हुयो ॥९॥
मास भाद्रपद औड़ लगी अस१।
सभिही शुशक हो गई बड ससि२।
पूरब जहां पिखति हरिआई।
बिन पाके फिरगी ग़रदाई३ ॥१०॥
-है नहिण अंन- त्रसे ग्रामीन।
-हमरे तौ जीवन इहु चीन।
बिनां अंन ते बहु दुख पाइण।
सकल कुटंब कहो का खाइ ॥११॥तन धन ते अर पशूअन संग।
जो हम पालन करी अभंग४।
जे बरखा अबि होवहि नांही।
निज परवार कुतो निरबाणही ॥१२॥
बिन पाके हुइ जाइ बिनाश।
कहां अंन की पूजहि आस५।
हमरे निकट दरब कुछ नांही।
जिस को खरच मोल ले खांही- ॥१३॥
*पा:-जे, जिअुण।
१भादरोण महीने विच सोका ऐसा पिआ।
२खेती बहुत सुक गई ।संस: शस = खेती॥।
३पिलतं।
४लगातार, इक रस।
५आस पुज़जेगी।