Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२७
इज़तादिक चिंता लताने।
आपस बिखै मिले इक थाने।
कहति भए जो बडे१ कहावैण।
पूछहु पांधा जे घन आवै ॥१४॥
करि हैण सकल कहै जो सोइ२।
जिम खेती हरिआवल होइ।
सुनति एक ते दूसर कहै।
हमरो गुरू तपा जो अहै ॥१५॥
-करामात युति मैण होण- भाखति।
सभि ते वडा तेज जो राखति।
सकल ग्राम को है हितकारी।
जो समुदाइ बिघन दै टारी ॥१६॥
हमरी त्रिय लै जावहिणबालिक।
मंत्रन ते दुख दारिद टालिक+।
संकट अपर अनेक निवारहि।
शकतिवंत है सुख दातारहि३ ॥१७॥
तिस ढिग मिलि करि चलिहौ सारे।
कछु मिशटान४ लि धरहु अगारे।
करहिण बेनती परि कै पाइ५।
तिस ते जाचहु बरखा आइ ॥१८॥
अस मसलत करि ब्रिध सभि लीने।
गए तपे ढिग चिंता कीने।
गादी को लगाइ सो बैसा।
समद दंभ धरि मूरति जैसा६ ॥१९॥
धरो अगारी करि मिशटान।
नमो सभिनि करि बंदे पान।
१(पिंड दे) वज़डे।
२अुह (पांधा)।
+पा:-दुख हा ततकालक।
३सुख देण वाला।
४मिज़ठा।
५चरनी पैके।
६(ऐअुण बैठा है जिवेण) हंकार नाल दंभ मूरत धार के बैठा है।