Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २२८
ब्रिज़धन तिस को जस बहु भाखा।
तुम पूरहु बहुतनि अभिलाखा ॥२०॥
अग़मतिवान१ महान पछाने।
बहु आवति तुम ढिग दुख हाने।
यां ते रावरि की बहु कीरति।
है समुदाइ ग्राम बिसतीरति२॥२१॥
सभि चलि आए शरण तुमारी।
अबहि कामना पुरव३ हमारी।
सुनि करि तपा हरखि कै गरबा।
मम अनुसारि सदा रहिण सरबा ॥२२॥
पिखहुण तुमारी भगति बिसाला।
करहु कामना दिहुण दरहाला४।
तुम मेरे हो सेवक सारे।
पूजहु चरन देहिण* दुख टारे ॥२३॥
सुनि कै राहक५ बिनै बखानी।
सुनो तपा जी! दुरलभ पानी।
प्रथम भई बरखा बहु धरा६।
बीजे खेत अुगे रंग हरा ॥२४॥
ब्रिधी अरोग बडी जबि होई।
हटे मेघ, नभ आइ न कोई।
बीतो कितिक काल बिन पानी।
हरी हुती सकली कुमलानी ॥२५॥
वहिर अंन जे होयहु नांही।
शंका हमरे जीवनि मांही७।
यां ते करुना करहु महानी।
१करामात वाले।
२फैली होई।
३पूरो।
४छेती कामनां पूरी कराणगा। (अ) (जो तुसीण) कामना करदे हो (मैण) झज़ट दे दिंदा हां।
*पा:-होहिण।
५ग़िमीदाराण ने।
६धरती ते।
७भाव कीकूं जीवाणगे।