Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) २३०

३०. ।बिदावा लिखाया। निकलं दी तिआरी॥
२९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>३१
दोहरा: ढिग खाजे मरदूद के, लिखा नुरंग पठाइ।
कसम ुदाइ कुरान दी, कसम पिकंबर खाइ ॥१॥
चौपई: मोहि हाथ को लिखो सु लै के।
सज़यद किसे भले को दै के।
सिर पर धरि कै जाइ कुरान।
मिलहि गुरू संग करहि बखान ॥२॥
जिस बिधि करि गुर मन पतिआवै।
सो करि देहु निकसि जिम आवै।
जोण कोण करि गुर करहु निकारनि।
मुझ लगि पहुचहि तजि रण दारुन ॥३॥
सभि अुमराव ब्रिंद गिर राजे।
मिले एक थल मसलत काजे।
सकल वकील भए मअुजूद।
तबि बोलो खाजा मरदूद॥४॥
हग़रत लिखि भेजो परवाना।
जिम माता चहि धरम इमाना।
तिम लिखि पठहु न बिलम लगावहु।
सभि राजे दिज भले बुलावहु ॥५॥
इत अंतर ते निकस न हारे१।
अुत हग़रत तूरनता धारे।
दिन महि इक दुइ शुतर सअूर।
भेजति शाह अहै बहु दूर ॥६॥
ग़ेरदसत बोलो इक माई२।
निकसो चहैण सिंघ समुदाई।
रहे सु ओदर अंन बिहीने।
गए वकील देखि सभि चीने ॥७॥
भीमचंद कहि सुनहु नवाब!
इस कारज को करहु शिताब।


१इधरोण (गुरू जी) अंदरोण ना निकले ते ना हारे।
२माता जी।

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