Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३४

कबहूं सुखी कबहिण दुख पावै।
जिमि निस दिन आवति पुन जावैण ॥१३॥
राअु रंक के एक समान।
अुपजति है अवज़श नहिण हान१।
सुख होएहरिखाइ हणकारति।
अधिक अहंता अपनी धारति ॥१४॥
दुख को पाइ दीन हुइ जाहिण।
-दियो प्रभू ने- कहि बिललाहिण२।
ईशुर बिखै अरोपहिण३ दोश।
निज करमन गति की नहिण होश ॥१५॥
प्रानी करम करति निज जथा।
फल दे प्रभू देखि करि तथा।
सुख दुख जगत नाथ के हाथा।
सुमति लखहिण४ दोशन निज साथा५ ॥१६॥
दोइन महिण प्रभु को सिमरंते।
जानहिण करमनि६ फल अुपजंते।
तिस को पुरखन महिण कहिण धीरा७।
परमेशुर को लखहिण गहीरा ॥१७॥
सुनि कै गुर के बच सुखसार।
पुनहि भनी परुखा८* क्रिखिकार९।
को कबि सुनै न गान तुमारो।
मत१० सभि को -तुम निकसि सिधारो- ॥१८॥


१भाव दुख सुख अवज़शोण अुपजदा है मिटदा नहीण।
२कहिके रोणदे हन।
३थज़पदे हन।
४सिआणे समझदे हन।
५आपणे दोश करके (मैळ दुख प्रापत होइआ है)।
६करम ही।
७बुज़धीवान, धीरजवान
।संस: धीर:॥।
८कठोर (बाणी)।
*पा:-परखा।
९खेती करन वाले (ग़िमीदाराण) ने।
१०सलाह।

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