Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) २३१
३०. ।खालसे दी जिज़त॥२९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>३१
दोहरा: निस महि मिले गिरीश सभि, जहि कटोच महिपाल।
भीमचंद भी तहि गयो, राजे राणे जाल ॥१॥
चौपई: पंमा आदि वग़ीर अनेक।
मिले सिआणे सुमति विवेक।
सभा बिसाल समूह लगाई।
झार मसालां बहु जलताई ॥२॥
भीम चंद मतिमंद गुमानी।
सभिनि सुनावति गिरा बखानी।
अनिक प्रकारन ते लर रहे।
नहीण मनोरथ कोण हूं लहे ॥३॥
दिवस मास ते अधिक बिताए।
लरति रहे गन सुभट खपाए।
राजनीति के चतुर अुपाइ१।
सकल बिचारहु चित को लाइ ॥४॥
बडो बहादर केसरि चंद।
भाअू जमतुज़ला सु बिलद।
दोनहु जोधा मरे जुझारे।
मीएण अरु राणे गन मारे ॥५॥
कहि लौ गिनीअहि सभि तुम जानोण।
सरो न कारज मरे महाने।
शाम, दाम, अरु भेद न भयो।
दंड अुपाइ चतुरथो कियो ॥६॥
इह त्रै ते पाछे बनि आवति।
सो हम प्रथम कीनि मन भावति२।
कुछ थोरे नहि भयो बिचारो।
पसरो शोक देश गिर सारो ॥७॥
प्रथम करनि जो चहीयतितीन३।
१राजनीती दे चारे अुपाव।
२भाव दंड जो असां पहिलां वरतिआ है, शाम, दाम, भेद, तिंनां तोण पिछोण वरतंा चाहीदा सी।
३भाव शाम, दाम ते भेद।