Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(राशि १) २३५

नांहि त गहि कै बाणह तुमारी।
तूरन बल करि देहिण निकारी।
तपे बखानो, हटहिण सु नांही।
बातैण आन बनावहु काही१ ॥१९॥
श्री अंगद सुनि बहु बिकसाने।
बुज़ढे सोण अस बाक बखाने।
अुठवावहु परयंक हमारो।
हम को इन को होति बिगारो ॥२०॥
जंगल मैण इक डीह२ पुरानी।
खान रजादा नाम बखानी।
चलहु तहां हम रहहिण इकंत।
शुभति इकंतहि संत महंत ॥२१॥
सुनि कै सभि सिज़खन मन जाना।
-तपे असूयक३ दुशट बखाना।
राहक मूरक लखहिण न कैसे।
अघी४ ईरखा ठानहि जैसे ॥२२॥
अपर अुपाव बनति कुछ नांही।
निकसहिण चलहिण आन थल मांही।
करहिण देर बिगरहिण मतिमंदे।
महां मूढ मिल जै हहिण ब्रिंदे- ॥२३॥
लखि अजतन५ निकसन ही चहा।
चले वहिर को सो थल जहां।
क्रिखिकारन सोण निकसति कहो।
हमरे बास जि तुम दुख लहो ॥२४॥
तौ हम जाइ अपर थल रहैण।
ग्राम दुखीकोण करिबे चहैण।
जितिक सिज़ख से संग सिधारे।
चले पिछारी, गुरू अगारे ॥२५॥

१किअुण।
२थेह, झिड़ी।
३ईरखा करन वाले।
४(तपा) पापी!
५(गज़ल ळ) जतन नाल ना सिज़ध होण वाली जाणके।

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