Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) २३२
भुस१ को बेचि कमावैण कार।
जिन के सिदक नहीण इतबार ॥८॥
इन ते आदि अपर भी केते।
गुर करि अपनो दरब सु देते।
चार घरी जबि दिन रहि जाइ।
शसत्र बसत्र को भले सजाइ ॥९॥
पुरि की सैल हेतु बिचरंता।
साठ सअूरन संग रखंता।
अज़ग्र नकीब बोलते अूचे।
जितिक चहैण पिखि तितिक पहूंचे२ ॥१०॥
दे बिसाल होति नित रहै।
अपन बिराना अचहि जु चहै।
संगति घनी दरस को आवै।
दरशन मात सुंदरी पावै ॥११॥
ढिग बैठहि इह भी पुजवावै।
कितिक भेट सिख आनि चढावैण।
सिरेपाअु संगति को देति।रीति गुरनि की करति सुचेत ॥१२॥
देश बिदेशन बिदतो घनो।
गुर को पुज़त्र गुरू इह बनो।
को को साने सिज़ख न मानैण।
माता को पालक पहिचानैण ॥१३॥
-गुरता को पज़यति नहि लछन-।
समझति गुर के सिज़ख बिचज़छन।
कितिक समोण इस रीति बितायो।
जान सु माननीय गरबायो ॥१४॥
कुछ माता को कहो न मानैण।
जोण मन आइ तथा क्रित ठानैण।
बरजहि बारि बारि क्रित खोटी३।
१तूड़ी।
२भाव, चाहुंदे हन कि जिथोण तज़क साडी नग़र जाणदी है आवाग़ बी अुतोण तज़क पहुंचे।
३(माता अुस ळ) खोटी कार तोण बार बार वरजदी है।