Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३६
चौदहिण लोकन थापि अुथापे१।
तअू छिमानिधि परम अमापे२।
गमनति पहुणचे केतिक दूरे।
करो जाइ डेरा गुर पूरे ॥२६॥
सिज़ख समीप बैठिगे तहां।
इक रस रिदा शांति नित महां।
जहां जाइ बैठे तहिण जंगल।
सतिगुर पग ते भा थल मंगल ॥२७॥
सभि मंगल के गुरू इसथान३।
कोण न होहि तहिण* जहिण भगवान।
करहिण कीरतन सुनैण अनेक।
सोभहिण बीच समुंद्र बिबेक४ ॥२८॥
तबि श्री बुज़ढे बाक बखाना।
आप परम हो छिमा निधाना।
द्रोहि अकारन तपा संतापी५।
निदा करति असूयक पापी ॥२९॥
इह राहक मूरख मति हीने।
रिदे बिचार जिनहु नहिण कीने।आनि आप को किय अपमाना।
सभि सिरमौर अुचित सनमाना६ ॥३०॥
तुमरी करी अवज़गा जोइ।
तपा पाइ फल अति दुखि होइ।
बिन कारन ही दैश कमावहि+।
हसहि निकासि, कहां सुख पावहि ॥३१॥
अजर जरन धीरज तुम मांही।
१चौदां लोकाण दे करता हरता।
२मापणे तोण रहत।
३सारे मंगलां दा असथान गुरू आप हन।
*पा:-कोण न हो चितहिण।
४भाव गुरू जी।
५बिना कारन तोण तपा दुखदाई।
६सभ दे वज़डे ते आदर योग हो।
+पा:-मचावहिण।