Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 222 of 459 from Volume 6

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) २३५

२८. ।घेरड़ बकबाद॥
२७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>२९
दोहरा: मति मोटी बड दुशट की, चलि आयहु गुर पास।
रिदे रोस खज़दोत१ जिम, समता चहि सपतास२ ॥१॥
चौपई: बैठो निकटि, न बंदन ठानी।
सम गवार बोलो मुख बानी।
कहु भाईअरजन के नद!
का कीनसि अुतपात बिलद? ॥२॥
इस भूमी को मालिक कोई।
है कि नही? जानहि कहु सोई।
किस को तैण बूझनि कर लीनि।
खरचो कहां? मोल किस दीनि? ॥३॥
श्री मुख ते हसि करि फुरमायो।
दुशटनि सिर अुतपात अुठायो।
करता पुरख भूमि को मालिक।
अपर किसू के का है तालिक? ॥४॥
सो परमेशुर बूझनि करो।
पुरि को रचनि मनोरथ धरो।
हरि चरननि रुचि महि चित परचो।
सभि हित इही मोल हम खरचो ॥५॥
अपर बूझनो हम नहि कीनो।
महाराज राजा प्रभु चीनो३।
सुनि घेरड़ बोलो मति काचा।
निशचै बनो भगति तूं साचा ॥६॥
खड़ग कमान शसत्र सभि धारैण।
नित अुठि गन जीवनि को मारैण।
कई हग़ार सैन जो आई।
तीन पहिर महि धूड़ि मिलाई ॥७॥
दया हीन हुइ लशकर मारा।


१टिटांा।
२सूरज दी।
३जाणिआण है।

Displaying Page 222 of 459 from Volume 6