Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 222 of 412 from Volume 9

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) २३५

३२. ।काणशी। हिंदूआण दी गिरावट॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>३३
दोहरा: सभि लशकर कर जोरि कै, सभि हूं सीस निवाइ।
भोर भिरड़ ततकाल ही, गए अकाश बिलाइ ॥१॥
चौपई: नाग़ शीरनी सभिनि चढाए।
अग़मत कहु देखति पतीआए।
कहिनि लगे तारीफ बडेरी।
महिमा अबि लाखहु नर हेरी ॥२॥
भौर, भिरड़, तंदज़या घने।
सभि के डसो डंग दुख सने।
लशकर महि पायो बड रौरा।
फिरति अुडति जेतिक दल ठौरा ॥३॥
जबि की नाग़ शीरणी दई।
तबि की इनहु मंद गति लई।
सनेसने गमने, नहि पाए।
जानी जाइ न गे किस थाए ॥४॥
कित ते निकसे? लठ नहि पोली।
मनहु किनहु इन थैली खोली।
एकहि बार नरनि पर परे।
मनहु तीर किन छोरनि करे ॥५॥
इज़तादिक अनेक कहि बात।
लठ की अग़मत भी बज़खात।
कीनसि कूच नुरंगे डेरा।
निज रजधानी कअु किय फेरा ॥६॥
दै गोरे लागे लठ बीच।
रहे चिन्ह पिखि अूच रु नीच।
चिरंकाल पुंन पीछे रही।
खांड* परे दै सभि हूं लही१ ॥७॥
पुनहि अठारहि सै अरु साठ२।


*पा:-पाड़।
१खोड़ां दो पै गईआण सभनां ने देखीआण।
२संमत १८६०।

Displaying Page 222 of 412 from Volume 9