Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २३९

करति दैश को कारण बिना।
इस ते अपराधी को घना ॥७॥
जिसने हित अनहित१ न बिचारे।
सिखवन२ दे गुर वहिर निकारे।
श्री गुर अमर सुनति दुख पायो।
-देखो का इनि दैश कमायो ॥८॥
सरल समान चिज़त गुर३ पूरे।
राहक तपा मंदमतिकूरे।
लेनि देनि तिन को नहिण कोई।
कोण कुकरम मिलि ठानो सोई ॥९॥
मो ते जरो* जाइ नहिण कैसे।
जावद फल मैण देअुण न तैसे-।
इमि कहि गए४ पंचाइत पास।
बैठे धारो बरखा आस ॥१०॥
भो राहिक गन! काज तुमारे।
भयो किधौण नहिण गुरू निकारे५।
जो इज़छा मन मैण तुम ठानी।
भयो कि नहिण खेतोण महिण पानी ॥११॥
सुनि क्रिखिकारन ऐसे बैन।
कहति भए को बरखा है न।
कहो तपे को हम ने कीना।
है करि आतुर नीर बिहीना ॥१२॥
जो बरखा बरखावनि करै।
तिस को कहो न हम ते फिरै।
जिस६ अधीन जीवन सभि केरा।
है अस अंन सु खेत घनेरा ॥१३॥


१भला बुरा।
२सिज़खा।
३चित करके गुरू जी सरल ते समद्रिशटा हन।
*पा:-सहो।
४(श्री अमर दास जी) गए।
५गुरू जी ळ कज़ढ देण नाल।
६भाव बरखा दे।

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