Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) २३७
३१. ।श्री नानक मते ळ पठां आए॥३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>३२
दोहरा: दंपति सेवा करति भे, वसतु हुती सभ तार।
भांति भांति भोजन करे, महां प्रेम को धारि ॥१॥
चौपई: रामो त्रिय पति सांई दास।
निस महि बैठि मात के पास।
प्रथम गुरू के ग़िकर चलाए।
कोण नहि संग आप के आए? ॥२॥
अबि केतिक दिन महि चलि आवैण?
हम दोनहु जिस निस दिन धावैण।
घर न प्रवेशहि हम प्रण कीनि।
गुर अंतरजामी सभ चीन ॥३॥
श्री गंगा तबि सकल बताई।
अुत की हुती अधिक सहिसाई।
श्री नानक को थान बिगारा।
हुइ आतुर तिह सिमरन धारा ॥४॥
इत तुमरो लखि प्रेम घनेरा।
रहे बिचारति बहुती बेरा।
दोनहु दिशि की पुरवनि आसा।
हम को पठो कि देहु दिलासा ॥५॥
कहति भए -हम पूरब जाइ।
करहि संत की तहां सजाइ।
इतने समेण जु साईणदास।
बिहबल होवै प्रेम प्रकाश ॥६॥
तहां जाइ मिलि देहु सुनाए।
हम केतिक दिन महि अबि आए।
बसहि तुमारे ढिग१ चिर काल-।
जानिसराहो प्रेम बिसाल ॥७॥
इज़तादिक कहि सुनि बहु भांती।
सुपति जथा सुख सभि तिस राती।
भई भोर सुधि कुशल बतावनि।
१भाव श्री गुरू हरि गोबिंद जी पास माता जी ने।