Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २४०बाक तपे को मानो सही।
तअू भई बरखा किमि१ नहीण।
हम आतुर भे नीर बिहीना।
निज जीवन चहि अकरन कीना२ ॥१४॥
बरखा दे जु क्रिखी ह्रित करिही३।
हम राहक तिह निति अनुसरही४।
तिस की आइसु को अस मानहिण।
नहीण करन भी करिबो ठानहिण५ ॥१५॥
इमि श्री अमरदास सुनि बैन।
कहो सु छोभ कोप रसु नैन६।
कहे तपे के घन नहिण आवा।
श्री गुर ग्रामहि ते निकसावा ॥१६॥
श्री+ सतिगुर के सेवक जेई।
बरखा देनि शकति धरि तेई।
कहो तिनहिण को मानहु नीका।
बरखहि मेघ भावतो जीका ॥१७॥
तपे ईरखा करि निकसाए।
शकति हीन नहिण घन बरखाए।
अबि तुम जाहु तपे के पासि।
सुनि नर गए करी अरदास ॥१८॥
गुर तौ हम ने दीन निकारी।
तअू न बरखो बारद++ बारी७।
तपे कुछक रिस करि मुख भाखी।
१किवेण बी।
२निरदयता दा कंम कीता ।संस: अकरुं॥ (अ) (अकरन =) ना करने योग कंम। भावेण असां ना
करने जोग कंम बी कीता (बरखा नहीण होई)।३हरी करे।
४अनुसारी हां।
५ना करने जोग बी कराणगे।
६कोप विच नैं रस रहे सन, जद किहा (अ) कोप रस = गुज़से वाला रस, गुज़से दे वलवले विच।
इह गुज़सा क्रोध नहीण, मंद करमीआण अुते जो नेकी दे सुभाव वाला गुज़सा हुंदा है अुह है।
+पा:-तौ।
++पा:-बादर।
७बज़दल तोण जल।