Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २४१
मूठी महिण बरखा नहिण राखी ॥१९॥
मंत्र जंत्र करि जुगति बनावौण।
तुम हित बरखा को बरखावौण।
सुनि नर आइ कही तिमि बाति।
अबि तौ बोलति कछुक रिसाति ॥२०॥
तबि श्री अमर कहो बिन देरि।
हम बरखा बरखाइण बडेरि।
नहिण ऐसे गुर को सिख जानो१।
बरखा करहिण कहो तिन मानो ॥२१॥
सुनि राहक लालच करि पानी।
बिरथी* बात तपे की ठानी।
हम तो हैण तिस के अनुसारी।
जो जल देहि किदार२ मझारी ॥२२॥
हित जल के तिस को बचु माना।
अपर जु दे बरखाइ महाना।
कहै सु हम मानहिण सभि ग्राम।
जो जीवनि को दे अभिराम३ ॥२३॥
नांहि त हम मरिहैण दुख पाइ।छुधा सही नहिण किसि ते जाइ।
जे जलदाता४ बचु नहिण मानहिण।
तौ हम अपना जीवन हानहिण ॥२४॥
अस को आज होइ अुपकारी।
दे जीवनि जीवन सुख कारी५।
तिस के हम हैण सदा गुलामू।
करहिण सेवकी सभिही ग्रामू ॥२५॥
इमि निशचै सभि को करिवाइ।
कहि श्री अमर सुनहु समुदाइ।
१ऐसे (तपे वरगे) गुरू दे सिज़ख (झूठे) ना जाणो।
*पा:-ब्रिज़पै।
२खेती।
३जो सुहणा जीवन साळ देवे। (अ) जीवन = पांी। भाव जो साळ पांी देवे।
४जल दे वरसाअुण वाले भाव अुपकारी पुरश दा।
५जीवाण ळ सुखी करन वाला जीवन।