Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)२४३
तुमरे चले जि घर बरखै है।
इस ते हम मनु कामन१ पै है ॥३२॥
जे हित चाहति आप हमारा।
निकसहु बाहर गमहु किदारा२।
हम सभि चलि हैण संग तुमारे।
करहु ग्राम पर अस अुपकारे ॥३३॥
करति म्रिदुलता जुति पतिआवन३।
इमि कहि बहु बिधि किय निकसावन।
वहिर ग्राम ते निकसो जदा।
समुख आइ घन देखो तदा ॥३४॥
पता लगो सभि के मन मांही।
-गुर सिख भनो, सु मिज़था नांही-।
करति बारता बेग चले हैण।
परखति सिख को बाक भले हैण ॥३५॥
ले जबि गए किदार मझार।
बरखनि बूंदैण लगी फुहार।
दूसर खेत बिखै पग धारा।
मोचति भए मेघ जल धारा ॥३६॥
-लघु दिन रहो- चिंत अुपजावैण।
निज निज दिश को चहति चलावैण।
आपस महिण राहक करि गिन को४+।
-किमि इहु कारज++ पूर सभिनि को- ॥३७॥
निज किदार दिश ऐणचन लागे।
जिदति परसपर५ रिस अुर जागे।
तपा भयो बाकुल तिस काला।
झिरक झिरक तिन परहि बिसाला ॥३८॥१मनो कामना।
२खेत विच चज़लो।
३कोमलता नाल पतिआअुणा कीतो ने।
४गिंती करदे।
+पा:-हठ को।
++पा:-कारन।
५जिददे हन आपस विच।