Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) २४१

३३. ।मुज़लां, काग़ीआण दा नुरंगे ळ प्रेरना॥
३२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>३४
दोहरा: हिंदुनि संग बद बर१ भयो,
इम नुरंग तुरकेश।
तुरकनि मिलि करि एक हुइ,
रचहि अुपाइ बिशेश ॥१॥
चौपई: भूमि भौन के धन के झगरे।
साक करनि आदिक जे सगरे।
हिंदु होइ तुरक बन जाइ।
तिस को सभि तेदेहि जिताइ ॥२॥
किधौण छुधातुर हिंदू होइ।
कै दारिज़द्री धन चहि कोइ।
तिस ते आदि अनेक प्रकारे।
जिम किम तुरक बनाइ बिगारेण ॥३॥
चहहि सु देहि, दीन महि आवै२।
पुनहि जीवका तांहि बनावैण।
सभि देशनि महि अस गति होई।
राखा दुतिय न दीसति कोई ॥४॥
जहि जहि द्रिड़्हता हिंदुनि केरी।
तहि तहि ग़ोर पाइ करि ग़ेरी३।
जिस ने अग़मत किछु दिखराई।
तिस ते हटक रहो पछुताई ॥५॥
बनो न तुरक, करो हठ जाणही।
अरु अग़मत दीनसि किम नांही।
ततछिन तिसै गहै संघारै।
अरु तिस को पज़खी गहि मारै ॥६॥
महां क्रर करमा मति मंद।
काग़ी मुज़लां मूड़्ह बिलद।
जिम हिंदुनि पर हुइ कठनाई।


१बहुत बुरा।
२जो चाहुण सो देणदे हन (इस तर्हां) दीन विच आणवदे हन।
३नीवेण कीते।

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