Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २४९
दुरमति खोट करमि किय जेतिक।
तातकाल फल पाइहु तेतिक१ ॥७॥
शरणि परे हम* राहक सारे।
छिमहु गुरू तुम महिदअुदारे।
सुनि सतिगुर तिन दिश पिखि बिकसे।
बाक सुधा, ससि मुख ते२ निकसे ॥८॥
सभि जग मिज़था रूप निहरैण।
हम काहू संग बैर न करैण।
मिज़था मान अपर अपमान३।
हरख शोक हम नाहिन ठानि ॥९॥
करहि करम जस, तस फल पावहि।
बुरा भला निशफल नहिण जावहि।
मिज़था महिण गानी नहिण रचे।
साच सरूप बीच निति मचे ॥१०॥
दुबिधा४ तुम महिण देखी भूरि।
हम तागो तबि ग्राम खडूर।
तुम को संकट कोइ न होइ।
बसहु सदन मैण, सभि सुख जोइ ॥११॥
हम तो जहिण बैठहिण हरखावहिण।
किति ते पाइ न कितहुण गवावहिण५।
हान लाभ हमरे किम नांही।
मंगल है इस जंगल मांही ॥१२॥
सुनि राहकि गहि पद अरबिंद।
छिमहु छिमहु तुम रूप गुबिंद।
चलि कै ग्राम प्रवेशन कीजै।
ताग आन, निज थान बसीजहि ॥१३॥
१तितना।
*पा:-अब।
२चंद वरगे मूंह तोण।
३मान अते अपमान मिथिआ हन, अपर दा अरथ एथे-अते-है। (अ) दूसरे दा अनादर (तेआपणा) मान झूठे हन। (ॲ) दूसरे दा अपमान करना असां झूठा मंनिआ है।
४वैर भाव।
५भाव वसती अुजाड़ किते बी साडा हरख वधदा घटदा नहीण।