Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) २४७
३२. ।वकील वापस गिआ॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>३३
दोहरा: नद चंद कर बंदि कहि,
भीमचंद सैलिद।
पठो सु अबहि हकारीए,
दरसहि पद अरबिंद ॥१॥
चौपई: लेश्री गुर ते हुकम पठायो।
सुनि वकील सो ततछिन आयो।
सभा मझार प्रवेशो आई।
धरि अकोर को ग्रीव निवाई ॥२॥
जहां मेवरे थान बतायो।
बैठो त्रसति अंग सुकचायो१।
दीह प्रताप दिखति प्रभु केरो।
जथा इंद्रासं इंद्र सु हेरो२ ॥३॥
हाथ बंदि करि अरग़ गुग़ारी।
करी नमो न्रिप आप अगारी।
कदम पदम पर सिर निज राखा।
दासन दास होनि अभिलाखा ॥४॥
फुरमायो श्री मुख अरबिंदं।
भीमचंद मनुजेणद्र३ बिलदं।
कुशल समेत कहां अबि थिरो?
इत ते जाइ गमन कित करो? ॥५॥
कहु कारन तूं निज आगवनू।
पठो होइ न्रिप कारज कवनू?
सुनति दूत ने कुशल जनाई।
जबि को दरस कीनि गिरराई ॥६॥
तबि के गुन गन रावर केरे।
बरनति है सभि निकट बडेरे४।
१डरदा अंग संकोच के बैठा।
२जिवेण इंद्र दे सिंघासन ते इंद्र शोभदा है।
३राजा।
४वडे (गुण)।
(अ) वडिआण पास।