Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५१
समसर जानति हो तुम दोइनि ॥२०॥
भाअु बिलोकहु भोजन खाते।
लालो घर श्री नानक जाण ते।
दिज बाहज बैसन१ की तजि कै।
शूद्र सदन महिण अचवति रज कै ॥२१॥
हुती भीलनी जाति सनाति२।
राम चंद्र तिस के फल खाति।
इमि कहि सतिगुर ग्राम टिकाए।
सदन अहार तार करिवाए ॥२२॥
तूरन तारी सकल कराइ।
रिदे भाअु धरि गुर ढिग आइ।
हाथ जोरि करि बिनै बखानी।
भोजन भयो तार गुनखानी ॥२३॥पद अरबिंद सदन मुझ पाईए।
सभि संगति अपने संग लाईए।
आसा पूरन करहु गुसाईण।
औचक आवन भयो कदाईण३ ॥२४॥
भाअु जानि तिह रिदे घनेरे।
चले संग जिस भाग बडेरे।
जल छिरकाइ सु बसत्र बिछाए।
अूपर चौणकी चारु डसाए ॥२५॥
तिस पर बसतर बहुर बिछावा।
श्री अंगद को तहां बिठावा।
थाल बिसाल क्रिपाल अगारी।
खीर खंड घ्रित अूपर डारी ॥२६॥
अपने हाथ परोसो तांही।
गुरू अचहिण हरखहिण मन मांही।
सभि संगति को दियो अहारा।
त्रिपताए अचि साद अुदारा ॥२७॥
१खज़त्री, वैश।
२नीच।
३कदे कदाईण।