Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५२
सीतल पानि पान करिवावा।
सभि हरखे मन बाणछति पावा।
चुरी कीनि अरु हाथ पखारे।
भए गुरू चलिबे कहु तारे ॥२८॥
तबि श्री अमर* दियो बर ताहू।
हुइ संतति तव बड सुख पाहू१।
गमन कीनि तबि ग्राम खडूर।
राहक आदिक संगत भूर ॥२९॥
अपनेआसन आनि असीने।
सुनो सभिनि मिल दरशन कीने।
सभि के मंगल भयो बिसाला।
करि बरखा पुन बसे क्रिपाला ॥३०॥
नहीण स्राप किसहूं को दीना।
सभि अपराध बखशबो कीना।
पूजनि लगे बहुर गुर चरना।
जिन के सिमरन जनम न मरना ॥३१॥
पुन श्री अमर गुरू बच नालि।
गमन कीनि मग गोइंदवाल।
केतिक हुते सिज़ख तबि संग।
पाछल दिश गमनहिण तिस ढंग ॥३२॥
मारग बिखै हाड इक मानव।
परो हुतो कबि को नहिण जानव२।
लगो चरन पाछल दिस जाण ते।
करामात जिनि महिण अधिकाते ॥३३॥
नरक बिखै ते निकसो पापी।
दुसहि सग़ाइ सकल ही खापी३।
ततछिन मानुख तन हुइ गयो।
जो निरजीव सजीवी थियो ॥३४॥
*पाठ श्री अंगद चाहीए।
१गुरू (अंगद) जी दी आगा नाल तीसरे गुरू जी ने।
२नहीण जाणिआण जाणदा।
३कठन सग़ाइ सारी अुस दी नाश होई।