Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २५२३६. ।श्री गुरू हरिक्रिशन जी दा दिज़ली ळ जाणा॥
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दोहरा: इम न्रिप जै सिंघ दूत के, बाक सुने सभि कान।
भगत वछल निज बिरद को, सतिगुर सिमरनि ठानि ॥१॥
चौपई: बिनै स प्रेम डोर के साथ।
बंधमान होवति जग नाथ।
ऐणचो फिरति भगत के संग।
ताग न सकहि सदा इक रंग ॥२॥
कितिक काल जग गुर रहि मौन।
के सोण दियो न अुज़तर कौन१।
पुनहि भविज़खत सकल बिचारी।
हुइ है जथा ईश गति भारी ॥३॥
सो बिचार करि चित महि नीके।
चलिबो चहो सु दिशि दिज़ली के।
तिस दिन पुन जे मुज़ख मसंद।
करे हकारनि सुमति बिलद ॥४॥
सभिहिनि सोण श्री मुख ते कहो।
गमनि ब्रितांत कथं चित लहो२।
परण अडोल हमारो एही।
दरशन तुरक देहि नहि लेही ॥५॥
न्रिप जै सिंघ की प्रीति घनेरी।
बिनती कीनि बखानि बडेरी।
तिस को भाअु न फेरो जाइ।
अनिक अुपाइन प्रेम बढाइ ॥६॥
तिस को दूत न छूछोण फेरहि।
अुचति जाइ३दिज़ली पुरि हेरहि।
कै सिहु बनहि तहां सभि सहीऐ।
सेवक को सु प्रेम निरबहीऐ ॥७॥
इम सुनि कै मसंद समुदाए।
१किसे ळ कोई अुज़तर ना दिज़ता।
२कैसा चित विच (तुसां) जाणिआण है।
३योग है कि जा के।