Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५५
२५. ।स्री अमर जी दी गुर दरशन लई सिज़क ते गुरू जी दा मिलाप॥
२४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>२६
दोहरा: केतिक दिन बीते जबहि, गुरु दरशन नहिण कीन।
जो नित प्रति निकटी रहैण, होइ प्रेम आधीन ॥१॥
चौपई: तिन को बिन देखे दिन बीते।
कुतो शांति करि चीति प्रतीते१।
तरफति रात नीणद नहिण आवै।
दिन महिण रुचि करि असन न पावैण ॥२॥
खान पान सोण नहीण सनेहू।
पद अरबिंदनि प्रेम अछेहू२।
सभि सोण अुदासीन रहिण बैसे।
नहिण रुचि बोलन, सुनहिण न कैसे ॥३॥
-मन सिमरन करि करोण हकारन३।
निशचै आवहिणगे मम कारन।
तअू तिनहु को श्रम४ मगहोइ।
इहु मेरे चित रुचहि न कोइ ॥४॥
दरशन बिनां शांति किम धारैण-।
इम असमंजसु रिदै बिचारैण।
-जाइ खडूर निहारन करिहोण।
हुकम मिटहि अपराध बिचरिहोण५- ॥५॥
मन महिण अनगिन ठानहिण गिंती।
निस दिन भनहिण दीन बनि बिनती।
चित चटिपटी६ लगति अधिकाई।
-करोण कहां कुछ करी न जाई- ॥६॥
अुत श्री अंगद जग गुर सामी।
दास रिदै लखि अंतरजामी।
१चिज़त किवेण शांती प्रतीत करे।
२इक रस।
।संस:॥ अचेछद = ना टुज़टं वाला।
३मन विच याद करके सज़दंा कराण, तद।
४थकान।
५विचारदा हां।
६बचैनी, आतुरता।