Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 240 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५५

२५. ।स्री अमर जी दी गुर दरशन लई सिज़क ते गुरू जी दा मिलाप॥
२४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>२६
दोहरा: केतिक दिन बीते जबहि, गुरु दरशन नहिण कीन।
जो नित प्रति निकटी रहैण, होइ प्रेम आधीन ॥१॥
चौपई: तिन को बिन देखे दिन बीते।
कुतो शांति करि चीति प्रतीते१।
तरफति रात नीणद नहिण आवै।
दिन महिण रुचि करि असन न पावैण ॥२॥
खान पान सोण नहीण सनेहू।
पद अरबिंदनि प्रेम अछेहू२।
सभि सोण अुदासीन रहिण बैसे।
नहिण रुचि बोलन, सुनहिण न कैसे ॥३॥
-मन सिमरन करि करोण हकारन३।
निशचै आवहिणगे मम कारन।
तअू तिनहु को श्रम४ मगहोइ।
इहु मेरे चित रुचहि न कोइ ॥४॥
दरशन बिनां शांति किम धारैण-।
इम असमंजसु रिदै बिचारैण।
-जाइ खडूर निहारन करिहोण।
हुकम मिटहि अपराध बिचरिहोण५- ॥५॥
मन महिण अनगिन ठानहिण गिंती।
निस दिन भनहिण दीन बनि बिनती।
चित चटिपटी६ लगति अधिकाई।
-करोण कहां कुछ करी न जाई- ॥६॥
अुत श्री अंगद जग गुर सामी।
दास रिदै लखि अंतरजामी।


१चिज़त किवेण शांती प्रतीत करे।
२इक रस।
।संस:॥ अचेछद = ना टुज़टं वाला।
३मन विच याद करके सज़दंा कराण, तद।
४थकान।
५विचारदा हां।
६बचैनी, आतुरता।

Displaying Page 240 of 626 from Volume 1