Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५७
सिकता म्रिदुल१ पुलनि२ जनु गंगा ॥१३॥
ललित सुथल पिखि बैठे जाई।
श्री अंगद सेवकसुखदाई।
लोचन पुट ते अंम्रित रूप३।
करति पान श्री अमर अनूप ॥१४॥
त्रिपत न होति हेरि जनु जीवति।
अति हरखति चित शांती थीवति।
नीचे थल सनमुख हुइ बैसे।
बासदेव४ अरजन जुगु जैसे ॥१५॥
महिमा महां लखी नहिण परे।
अंम्रित बचन गान रस भरे।
हे पुरखा! तुम हो मम रूप।
भेद न जानहु तनक, अनूप!५ ॥१६॥
सदा रिदे बासति हो मेरे।
तुझ सोण पार सदीव बडेरे।
आतम गान सदीव बिचारहु।
नाना भेद रिदे निरवारहु ॥१७॥
देहनि केर सनेहु अछेहा६।
मिज़था अहै न राखहु एहा।
आदि अंत महिण जो नहिण पज़यति।
मज़ध सज़त सो कैसे लहियति ॥१८॥
जो अुपजहि सो बिनसनि हारो।
लखि तां को मिज़था निरवारो७।
इस महिण संकट अनिक प्रकार।
नाशवंत द्रिशमान संसार ॥१९॥
जिस को इहु अलब नित भासे।
१कोमल रेत।
२किनारा (अ) ब्रेता।
३नेतराण (रूपी) डूनिआण नाल सुंदरता (रूपी) अंम्रित।
४क्रिशन।
५है अुपमां तोणरहत।
६अछेह नेह = लगातार या ना टुज़टं वाला पिआर।
७हटा दिओ।