Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रतापसूरज ग्रंथ (रुति ४) २५४
३३. ।माता जी ळ संत दरशन॥
३२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>३४
दोहरा: श्री गुर गोबिंद सिंघ जी, बली तरुन तन बैस।
दिन प्रति ब्रिज़धति खालसा, दूज चंद नभ जैस ॥१॥
चौपई: इक दिन श्री गुजरी गुर माता।
प्रात भई जल बिमल सनाता१।
प्रथम पाठ करि जपुजी केरा।
अपर पढी गुरबानी फेरा ॥२॥
पुन सुखमनी पाठ को करिते।
सहिज सुभाइक श्री गुर फिरते।
सादर तबि ही निकट बिठाए।
आप पठति बानी चित लाए ॥३॥
चहति श्रेय वैराग अुपाई२।
पठति पठति इह तुक मुख आई:-
स्री मुखबाक:
तैसा सुवरनु तैसी अुसु माटी ॥
तैसा अंम्रितु तैसी बिखु खाटी ॥ ॥४॥
इस को अरथ बिचारो माई।
पुनहि पुज़त्र संग गिरा अलाई।
हे सुत सभि थल गातावान!हाथ बज़द्र सम बिदत जहान३ ॥५॥
अूच रु नीच रंक कै राजा।
साध असाध लखहु सभि पाजा४।
इन तुकहन मैण जो भिज़प्राय५।
हरख शोक रहिनो इक भाइ ॥६॥
इस प्रकार को संत बिसाला।
मो कअु दिखरावहु किस काला।
दुंदन६ महि जिस ब्रिती समान।
१जल नाल अशनान कीता।
२भाव वैरागवान होके मुकती दी इज़छा कर रही है।
३हज़थ ते धरे बेर वाणू सारा जहान आप पर रौशन है।
४सारिआण दे पाज ळ जाणदे हो।
५तातपरय।
६दुख सुख, हरख शोक, मान अपमान आदि जोड़ो।