Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(ऐन २) २५५
३२. ।पालक अजीत सिंघ दा मारिआ जाणा। माता जी मथरा आए॥
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दोहरा: चित अजीत सिंघ दुख लहो, लखो -मरन बनि आइ।
किम बच हौण अबि शाहु ते, घेरो परो जु आइ- ॥१॥
चौपई: निज इसत्री अरु पुज़त्र निहारा।
तिनहु संग हुइ निकट अुचारा।
फटे मलीन धारि कै चीर।
तिन ते लेहु अछादि सरीर ॥२॥
निकसि जातु माता के पास।
तहि दुरि रहीयहि बीच अवास।
तुमहि बचावन हेतु अुपाइ।
मात बिना ते होइ न काइ ॥३॥
सुनि दोनहु खिंथर तन धारे१।
चोरी निकसे वहिर पधारे।
जबि तुरंगन के बीचे आई।
को हैण तूं कहु कहां सिधाई? ॥४॥
हम गरीब जमना के तीर।
जाति सपरशन नीर सरीर।
इम कहि सदन मात के आई।
रुदति ब्रिलापति परी सु पाई ॥५॥
हठी सिंघ को गेरि अगारी।
कही परी हम शरण तिहारी।
राखेजाइ अबहि जिस भांति।
करहु अुपाव राखीए मात! ॥६॥
घर प्रविशे अविलोके जबै।
मन अुदबिघन मात भई तबै२।
हौल अुठो दिल धीर बिनाशी।
-मुहि बिखाद देण लखि करि पासी३ ॥७॥
रहो न जाइ निकट रखि इन को४।
१पाटे मैले कपड़े पहिनके।
२माता चित विज़च चिंतातुर होई।
३(हठी सिंघ ळ) मेरे पास देखके (तुरक) मैळ दुज़ख देणगे।
४(दिज़ली विच) रिहा नहीण जा सकदा इहनां ळ पास रज़ख के।