Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २५६
३४. ।चंदू ग्रह कशट। तपत नीर॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>३५
दोहरा: निसा बिती पुन प्रात भी, शाहु बाक कहि दीन।
बजे नगारे कूच के, सुधि सभिहूं सुनि लीनि ॥१॥
चौपई: हग़रति जबि तिआर हुइ गयो।
चंदू अघी मेलि तबि कियो।
दिहु प्रवानगी१ मुझ को आपू।
दिनचारिक महि करिव मिलापू ॥२॥
कछू मामले की रहि कारि।
इक संमत की करनि संभारि।
नवी सिंद लागे समुदाइ।
जमां खरच को सभि समुझाइ ॥३॥
करि फरेब को छोरो साथ।
शाहु न चितवी पुन गुर गाथ।
बहु धंधे गन भोगनि बिसै२।
बहुर चलो चढि का सुधि तिसै ॥४॥
पूरब भी कबि गुरू प्रसंग।
कोइ न करति शाहु के संग।
सिमरि दैश को दुशट चलावै।
सुलही सुलबी चंदु बतावै ॥५॥
लेना देना कहि संग कोइ न।
धन हंकारी जानहि सोइ न३।
अहैण तुरक पुन ग्रसे बिकारा।
कहां चिनारी गुरू अुदारा ॥६॥
-नहि प्रसंग चलि- मिले पिछारी४।
बरजि दिये चंदू दुरचारी।
गमनति मिलो सकल को जाइ।
जे हजूर गुर गाथ चलाइ ॥७॥
१मनग़ूरी।
२विशिआण दे भोगां (विच खचत)।
३(गुरू जी दा) लैं देण भाव वासता किसे नाल बी नहीण सी (अते) धन दा हंकारी (होर
अहिलकार) सोइ (= गुरू जी ळ) नहीण जाणदे सन।
४पिछोण मिलके (लोकाण ळ कहि दिता किशाह पास) गुरू जी दा प्रसंग कोई ना चलावे।