Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २५८

३७. ।संगतां दे मेले॥
३६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>३८
दोहरा: कीरतपुरि ते सतिगुरू, प्रिथम सिवर को कीनि।
निसा बसे बिस्राम कै, पुन प्रभाति को चीन ॥१॥
चौपई: चलिबे कहु तयार जबि भए।
लमे देशनि के सिख अए।
मसतकटेकति अरग़ गुग़ारी।
गुर जी! संगति आवति भारी ॥२॥
दरशन करि सिख जे घर जाते।
तिनहु सुनावनि कीनी बातेण।
-सतिगुर हैण तिआर अुत जाने-।
सुनि करि मारग अधिक पयाने ॥३॥
श्रमति भए जहि गमनोण जाई।
दरस लालसा रिदै बधाई।
इसत्री पुरख ब्रिज़ध गन बाल।
आवति चाले श्रमति बिसाल ॥४॥
सभि मिलि हम को पठो अगारी।
दरस देहु गुर थिरता धारी।
निज संगति पर करुना कीजै।
मग बिसाल आए लखि लीजै ॥५॥
चलतोण मिलो जाइ नहि कोणहूं।
अुतलावति चालति मग जौणहूं।
संगति थकति जानि थिर रहीअहि।
बिरद सहाइक सेवक लहीअहि ॥६॥
श्री हरिक्रिशन गुरू गति दानी।
सुनि संगति की बिनै महानी।
-१भए थकति थिरता कहु धारे।
देति कामना संगति पारे२! - ॥७॥
तिह ठां राखो सिवर मुकाम।
बाल आरबल गुन गन धाम।


१(संगत दी बिनै जो सतिगुरू जी ने समझी सी इह सी:-) कामना पूरन करन वाले ते संगत दे
पिआरे(सतिगुरू जीओ!) (संगत) थज़की होई है (आप) ठहिर जाओ।

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