Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २५८

३६. ।श्री गुरदिज़ता जी ने मोई गअू जिवाई॥
३५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>३७
दोहरा: पावस बरखा अधिक है, सरिता सैलन सैल१।
श्री हरिगोविंद बहु करैण, नीचे अूचे गैल ॥१॥
चौपई: पावस इसी प्रकार बिताई।
सरदसुंदरी रितु पुन आई।
भए सेत घन जल को छोरि।
बिमल अकाश भयो चहूं ओर ॥२॥
कबि कबि श्री गुरदिज़ता चर्हैण२।
वहिर अखेर ब्रिति को करैण।
बाणछति लेति संग असवार।
बिचरहि जहि कहि बिपन मझार ॥३॥
श्री हरिगोविंद थिरता गही।
बहुर वहिर बहु गमनहि नहीण।
करनि अखेर अरूढन बाज३।
तजो राखबो सान रु बाग़ ॥४॥
जुगम समै४ शुभ सभा लगावैण।
शबद रबाबी सुंदर गावैण।
सिख संगति चहुंदिशि ते आइ।
लाइ अुपाइन को समुदाइ ॥५॥
अरपहि, दरस करहि बड भागे।
चरन सपरशहि प्रेम सु पागे।
सुनहि बचन सिमरहि सतिनामू।
पाइ श्रेय को गमनहि धामू ॥६॥
महां जंग होयहु बहु अरे।
काबल आदिक के नर मरे।
अुत दिज़ली आदिक पुरि बासी।
लरे गुरू संग भए बिनाशी ॥७॥
गुरू सूरता बिदत जहांन।

१पहाड़ां दी सैर।
२चड़्हदे हन।
३घोड़े ते।
४दोनोण वेले।

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