Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) २५८
बनहि आप को चलिबो तूरन।
दिहु दरशन तिह, गुन गन पूरन!
अग़मत ग़ाहर जाइ दिखावहु।
करहु शकति निज ओर झुकावहु+ ॥२१॥
करामात चाहति है देखा।
नित अभिलाखा वधी विशेखा।
बिन देखे सोण कोणहुं न टरै।
बिदति हठी अति हठ को धरै॥२२॥
गुर प्रताप पिखि मति बिरमाई।
भने दूत बच माधुरताई।
सुनि सतिगुर डेरा करवाइव।
खान पान सनमान दिवाइव ॥२३॥
कितिक देर गुर दरशन दीनसि।
पूर कामना संगति कीनसि।
पुन अंतहिपुर को गुर गए।
सो सरवरी१ बितावति भए ॥२४॥
होति भोर पुन सभा लगाई।
सरब हकारनि करे तदाई।
मुज़ख सभिनि महि बेदी आए।
तेहण कुल भज़ले बुलवाए ॥२५॥
सोढी बीर बिसाल हकारे।
आइ सकल सतिगुर परवारे।
परम जोति सूरज अुजीआरा।
रहो प्रकाश समूह मझारा२ ॥२६॥
मोह तपत अतिशै जर खोवा३।
गान कला ते पूरन होवा।
कीरति बिमल चंद्रिका चारू।
अस राणकापति४ शुभति अुदारू ॥२७॥
+पा:-ओज लखावहु। ओज झुकावहु।
१रात।
२इथोण ताईण सतिगुराण ळ सूरज दा रूपक दिज़ता है ते अज़गो चंद दा।
३मोह रूपी तपश दी जड़्ह दूर कीती।
४पुंनिआण दा चंद।