Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६१
सज़तनाम संग होवहि रंगति ॥३६॥
इस ते होइ अुधार हग़ारो।
सिखी मारग को बिसतारो।
पहुणचे जाइ खडूर मझारू।
बैठे बहुर सिंघासन चारू ॥३७॥
ढिग श्री अमर हेरि हरखाइ।
बाक बिलासनि दिवस बिताइण।
संधा समैण जबहि नियराना।
कहो जाहु पुरखा! निज थाना ॥३८॥
आइसु पाइ चले तिसु भांती।
गुर दिश मुख गमनहिण पशचाती।
तीन कोस चलि करि हुइ खरे।
गुरू धान धरि बंदन करे ॥३९॥
कोस रहहि जद गोइंदवाले।
पुरि की दिश मुख करि तबि चालेण।
जाइ आपने धाम बिराजेण।
जिन के धान धरे जम भाजे ॥४०॥
प्रेम निरंतर रिदेप्रवाहू।
चितवहिण गुर सरूप* मन मांहू।
मुख ते बोलहिण तौ गुर नामू१।
सुनहिण श्रौन किरतन सुख धामू ॥४१॥
अपर न देखो सुनो न भावै।
इक सतिगुर की अुर लिवलावैण।
जबि सिमरहिण तबि दरशन करैण।
ब्रहम गान को निति अुर धरैण ॥४२॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे श्री अंगद गोइंदवाल
आवन प्रसंग बरनन नाम पंचबिंसती अंसू ॥२५॥
*पा:-वा सरूप।
१तां गुरू जी दा नाम ही (बोलदे हन)।