Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) २५८
२६. ।भाई नदलाल गुरू जी दे हग़ूर॥
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दोहरा: आइ मिले स्री गुर निकट, देखो प्रेम बिसाल।
परे चरन कर जोरि करि लखे सु प्रभू क्रिपाल ॥१॥
दोहरा: नदलाल ने भेट चड़्हाई।
बीच फारसी बैत बनाई१।
सतिगुर सिफत ब्रहम को गान।
जुगति अुकति बहु रीति बखान ॥२॥
मुसकावति दसमे पतिशाहू।
क्रिपा करति बूझति भे ताहू।
आनोण कहां सुनावहु पारे।
का इस पोथी बीच अुचारे ॥३॥
कितिक बैत नद लाल सुनाई।
करे मायने नीक बनाई।
करो बंदगीनामा मोहि।
महिमा गिर ते कन सम होहि२ ॥४॥
अहै जथा मति तथा बनाई।
करिबे हित बानी सफलाई३।
गुन समुंद्र को लखै तुमारे?
जल परंतु ले काजु सुधारे४ ॥५॥
करहि शनान आदि, मल हरे५।
लहै न पार, जथामति ररे६।
दीन बंधु निज बिरद संभारहु।
हम से अधम जीव को तारहु ॥६॥
सुनि स्री सतिगुर क्रिपा निधान।
बहु प्रसंन है करति बखान।
१भाव ग़िंदगी नामे तोण है।
२(इस विज़च) आपदी महिमां पहाड़ विज़चोण (इज़क) किंका (वरणन करन) तुज़ल (वरणन) हुंदी है।
३(आपणी) बाणी सफल करन वासते (रची) है।
४तुहाडे समुंदर वत (अथाह) गुणां ळ कौं लख सकदा है पं्रतू (अुस विज़चोण) जल मात्र लैके कंम
सुआर लईदा है।
५मैल दूर करे।
६जैसी मति है तैसे कहे हन (आप दे गुण)।