Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) २५९
३४.।सिज़धां ळ निरुज़त्र कीत॥
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दोहरा: पढि सोदर अरदास भी, सभिनि निवायहु सीस।
श्री हरि गोविंद चंद जी, गुरु समरथ जगदीश ॥१॥
चौपई: चलदल प्रथम सतुल चहि करो।
दल सोण कलित१ हुतो जिम हरो।
निरमल जल पावन अनवावा।
कहि करि कुंकम को घसवावा ॥२॥
आप खरे हुइ कर महि धारो।
सज़तिनाम मुख मंत्र अुचारो।
निज कर ते छिरकनि को कीनि।
ततछिन निकसो दिपति नवीन ॥३॥
प्रथम लगर निकसी पिखि ऐसे।
बिवर बिखै ते बिसीयर जैसे२।
छिरके देति नीर के जोण जोण।
फैलति ब्रिधति जाति है तोण तोण ॥४॥
तबि अलमसत कहो कर बंदि।
श्री सतिगुर! सभि रीति बिलद।
प्रथम चिंन्ह इस पर गुरु करको३।
महां महातम जुत पिखि तरु को ॥५॥
अबि नहि पिखीयति तथा बनावहु।
सतिगुर ते चिंन्हति दिखरावहु।
श्री हरि गोविंद करो अुचारनि।
अपर चिंन्हयुत वधहि स डारन ॥६॥
इम कहि कुंकम को छिरकायहु।
छोटी बडी बूंदबरसायहु।
इन छीटनि ते चिंन्हति रहै।
जबि लौ थिर प्रथमी पर अहै ॥७॥
अबि इह निस महि बरधहि तेतो।
१पज़तिआण नाल शशोभत।
२वरमी विचोण जिवेण सज़प।
३पहिले निशान इस ते गुरू जी दे हज़थ दा सी।