Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६२
२६. ।शीहां अुज़पल। गुरू अंगद जी दे समावं दीआण तिआरीआण॥
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दोहरा: इक दिन श्री अंगद गुरू, गमने गोइंदवाल।
सेवक को दरशन दियो, कहि सुनि बचन रसाल ॥१॥
चौपई: सहिज सुभाइक आवति चले।
मग महिण सीहां अुज़पल मिले।
देखति ही पगबंदन करी।
भयो नम्रि अुर शरधा धरी ॥२॥
इक सौ छांग१ संग तहिण अहे।
तिन कहु देखि गुरू बच कहे।
भोशीहां! इहु कित ते लाइ?
किअुण कीनसि इन को समुदाइ ॥३॥
सुनि कर जोरे कहो ब्रितंत।
हे श्री सतिगुर जी भगवंत!
मोहि पुज़त्र को मुंडन२ अहै।
बड अुतसाह करो हम चहैण ॥४॥
हमरी कुल सभि इकठी होइ।
बडो हमारनि की बिधि सोइ।
इस बिधि+ करन अहै बिवहार।
आवहिण३ आमिख४ करहिण अहार ॥५॥
सदा जठेरन५ रीति हमारे।
ओदन आमिख६ देहिण अहारे।
खुशी अनेक प्रकारन होइ।
होहिण मेल कुल के सभि कोइ ॥६॥
सुनि करि बिकसे गुरू क्रिपाल।
भलो करन हित कहि तिस काल।
१इक सौ बज़करे।
२सिर मुंनंा।
+पा:-बध।
३(साडे साक मिज़त्र) आअुणगे।
४मास दा।
५वडिआण दी।
६(गिज़धे) चावल ते मास।