Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) २६०
३४. ।कुटवार दा आअुणा॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>३५
दोहरा: १सुनि वग़ीर! भाखो कहां?
मोहि प्रताप घटाइ।
जिह सोण वधो विरोध बहु,
तिस के किम ढिग जाइ ॥१॥
चौपई: हम ठाकुर कीभगति करंते।
प्रभु प्रतिमा२ को नित अरचंते।
जे सैलन की सभि ठकुराई३।
पूजहि सालगराम सदाई ॥२॥
राजपूत हम बंस बडेरे।
रहे सदीव मूरतनि चेरे।
तिस को तजि अबि नर तन पास।
जाइ करहि थिर है अरदास ॥३॥
इस प्रकार नहि लाइक मो कहु।
अपर बात समुझावहु तो कहु।
सकल सैलपति सिज़ख न कोअू।
गुरू समीप न पहुचहि सोअू ॥४॥
अपनि बडन की रीति चलते।
सभि प्रतिमा की पूज करंते।
मैण एकल ही निज मत छोरि।
कैसे बनौण सिज़ख गुर ओर ॥५॥
गिरपति सगरे हास बखानहि।
गज लैबे हित सिज़ख पछानहि४।
जबहि कदाचित बनहि समाजा।
जे निज धरम बिखै दिढ राजा५ ॥६॥
मो कहु कहैण तरकना साथी।
-करि लालच लैबे हित हाथी।
१भीमचंद बोलिआ।
२मूरती।
३भाव पहाड़ां दे मालक जो हन।
४हाथी लैं वासते सिख बण गिआ है इअुण समझंगे।
५राजे हन।