Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)२६४

भए क्रिपाल भनो बच फेरी ॥१४॥
हमरे दारे मुंडन करो।
अुर कौ भरम सरब परहरो।
बिघन जठेरनि को नहिण होइ।
सिमरहु सज़तिनाम दुख खोइ ॥१५॥
जिन को दुखदाइक तूं जानै।
जो तेरे सभि बिघननि ठानै।
सरब ओर ते हुइण रखवारे।
सभि सुख देहिण, न काज बिगारे ॥१६॥
अज१ सगरे अब दीजहि छोर।
नरक निहारहिण नहिण दुख घोर।
सुनि बचन धरि शरधा माने।
हाथ जोरि अपनो हित जाने ॥१७॥
अज खलास तिसु छिन सभि कीने२।
गुर के चरन कमल मनु लीने।
जाइ सदन सभि जेतिक तारी।
आनति भा गुर केर अगारी ॥१८॥
अपने बंधू तहां हकारे।
बहुर पुज़त्र को स्री गुर दुआरे।
मुंडन रीति* बंस की जैसे।
भली भांति करवाइव तैसे ॥१९॥


१बज़करे।
२छज़ड दिज़ते।
*इह प्रसंग महिमा प्रकाश विच है, पर ओथे गुरूदुआरे मुंडन होणा नहीण लिखिआ, सगोण सिज़ख
बणना लिखिआ है। सीहेण ळ गुरू जी ने किहाकि तूं वज़डिआण तोण ना डर, मेरे डेरे इस ळ सिज़ख
बणा, यथा:-
सुहिरद देख प्रभ दइआ कर तांहि कही समझाइ।
मम दुआरे सिज़ख को करो बिघन ना होवे काइ।
फिर जद सतिगुर डेरे गए तां बज़चा सिज़ख बणिआण यथा:-
सतगुर दुआर सिख को कीओ कारज होए रास।
भाई गुरदास जी ने सीहां अुज़पल पहिली पातशाही दे वेले सिज़ख होइआ लिखिआ है, ते
यारवीण वार दे टीके विच पहिली पातशाही दा ही सिज़ख लिखिआ है। तीजे सतिगुराण वेले सीहां,
भाई मुरारी ळ काकी विआह विच देणदा है, चौथे साहिबाण वेले जापदा है अंम्रितसर कुटंब संे आ
वसिआ है, अुपलां दी गली अजे तक है। दूजे साहिबाण नाल साखी महिणमा प्रकाश दी है ते ओथे
ग़िकर सिख बणाअुण दा है मुंडन दा नहीण है।

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