Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) २६१
३४. ।कड़ाह दी लुट। भाई रामकुइर जी॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>३५
दोहरा: बैठो श्री सतिगुर निकट, रामकुइर शुभ संत।
सिज़खी की लछमी महां, जिन के दिपत अनत१॥१॥
चौपई: श्री गुर कुशल प्रशन करि सारे।
क्रिपा द्रिशटि ते बहु सतिकारे।
गुर सिज़खी के तुम आधारे।
पाइ सुमग नर अधिक अुधारे ॥२॥
गुर सिज़खी सागर बिनु पारी२+।
शरधा को निशचा बर बारी३।
सज़तनाम सिमरनो निरंतर।
निस दिन अुठहि तरंग सु अंतर४ ॥३॥
हअुमै सुरत बिसारन करनी५।
इह पावनता६ जिस महि बरनी।
परमेशुर को क्रित भल भावै७।
सदा अगाधपनो दरसावै ॥४॥
श्री नानक अर दसम सरूप।
दिढ बेला८ दै लखहु अनूप।
सम दम दया धरम सुच शांती।
रहति राखंी गुरमति भाती९ ॥५॥
छिमा, सौचता, मुदिता, प्रीत।
इह नद नदी मिलहि जिस नीत।
सिज़ख संत जलजंतु अपारा।
मीन आदि जे अहैण अुदारा ॥६॥
१बिअंत सिज़खी दी शोभा।
२गुर सिज़खी समुंदर है बिना पार तोण भाव अपार।
+पा:-गुरमुख सिखी सिंधु अपारी।
३स्रेशट जल।
४(अुस समुंदर) विच निसदिन नाम जपणा मानोण त्रंग अुज़ठंे हन।
५हंगता दी सुरत दा भुलावंा।
६भाव इह पविज़त्रता है।७परमेसुर दी क्रित भली भावंी भाव भांा मंनंा।
८किनारे। (अ) नदी दे दोहां किनारिआण दे जंगल।
९गुरमति अनकूल रहित रज़खंी।