Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ३७
४. ।कपाल मोचन॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>५
दोहरा: श्री कलगीधर तरी को, प्रेरनि करि जल मांहि।
रवि तनुजा के बीच ही, चले आइ हरखाहि ॥१॥
चौपई: चले नअू जल के अनुकूल१।
अविलोकहि सुंदर दै कूल।
गन पंकति तरुवरु की खरी२।
हेरहि हरी हरी जबि खरी३ ॥२॥
सने सने गमनै जल तरनी।
श्री मुख ते शोभा बहु बरनी।
पुशपति४ बन को करहि दिखावनि।
तरुवर की बहु जाति बतावनि ॥३॥
बिना पंक५ ते चारु प्रवाहू।
शामल बरन बिलोकहि ताहू।
नगर पांवटा तट पर जाण के।
आवति चले नीर पर तां के ॥४॥
तीर तीर पर हय डुरिआए६।
सभिहिनि के सेवक लै धाए।
जहि बैठनि की रुचिर सथाई।
सिला बिसाल परी तट छाई ॥५॥
अबि लौथल बिन करदम सोअू।
दिखीअति है सुंदर तट दोअू।
करी खरी तरनी तहि आइ।
श्री गोबिंद सिंघ अुतरे राइ ॥६॥
खान पान करि निसा बिताई।
जागे प्रभु प्रभाति हुइ आई।
सौच शनान ठानि गुर पूरे।
१नाओ पांी दे प्रवाह अनकूल (हेठां ळ) जा रही है।
२खड़ी है।
३जद देखदे हन हरी कतार रुज़खां दी (तां) सहुणी लगदी है। ।खरी = सुहणी॥।
४फुलां नाल भरे होए।
५चिकड़ तोण बिनां भाव निरमल। चिकड़ बिन पांी वी सिआले दी निशानी है।
६कंढे कंढे घोड़े लई आए।