Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २६४
३७. ।श्री बाबा गुरदिज़ता जी दा समाअुणा॥
३६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>३८
दोहरा: श्री गुरदिज़ते संग महि,
सुभट हुते तिस थान।
हाथ जोरि बोले सकले,
गुर सुत सुनहु सुजान! ॥१॥
चौपई: मरी गअू ते दोश घनेरे।
जे जीवहि हुइ कुशल बडेरे।
जोण कोण करि दीजहि इस प्रान।
सभि दिशि ते कलहा हुइ हान ॥२॥
पातक मिटहि पुंन अधिकाई।
पसरहि कीरति बिमल सदाई।
नर आदिक जे अपर जिवावन।
सुनि सतिगुर तबि होइ रिसावन ॥३॥
इस ते पुंन अधिक को जानि।
श्री प्रभु नहीण कोपको ठानि।
इज़तादिक सभिहूंनि सुनायो।
गुर सुत सुनति रिदे हुइ आयो ॥४॥
-अबि तौ आछी अहै जिवावन।
सहित पुंन अरु रार मिटावन।
पिता कोप को लेहि सहारि।
जथा कहेण सो करि हैण कार- ॥५॥
इम अुर लाइ तुरंगम छोरि।
अुतरि गए म्रितु धेनू ओर।
नीम तरोवर की नवला सी१।
हाथ गही पहुंचे गो पासी ॥६॥
छरी लगाइ गअू को गांत।
श्री मुख ते बोले इस भांति।
अुठहु मात! अबि निद्रा तागहु।
पूरब सम चरिबे त्रिं लागहु ॥७॥
सुभट सकल अरु खरे पहारी।
१निम ब्रिज़छ दी नवीण नवीण छटी।