Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६७

सुनि सुनि सिज़ख रिदै बिसमावैण।
वाहिगुरू१ तजि देहि समावैण।
जहिण कहिण पसर गई इम बाती।
हितू सुनति भरि आवति छाती ॥३२॥
अूच नीच जुति चारहुण बरना।
सुनि सुनि रिदै बिसमता करना।
-पूरब कहैण समावहि फेर२।
करामात के धनी बडेर- ॥३३॥
जहिण कहिण सिख बहु सुनि सुनि आवैण।
-दरसहिण सतिगुर बहुर समावैण-।
अपर लोक अवलोकन कारन।
आवहिण करिते सुजस अुचारन ॥३४॥
सुनि श्री अमर अधिक अकुलाए।
नहिण पहुणचहिण ढिग, बिना बुलाए।
घटी कलप३ सम बीतहि तांही।
करति अराधन बहु मन मांही ॥३५॥
स्री अंगद लखि अंतरजामी।
पठो हकारन सिख तबि सामी।
सादर जाइ अवाहनकीने४।
सुनति चलो जल सोण द्रिग भीने ॥३६॥
ततकाल गुर दरशन करो।
तूरन करति चरन पर परो*।
द्रवी५ बिलोचन ते जल धारा।
मनहु प्रेम को छुटो फुहारा ॥३७॥
बाकुल परम जानि करि दासा।
श्री अंगद मुख बाक प्रकाशा।
सुनि पुरखा! पूरन तुम गानि।


१वाहिगुरू विच।
२पहिले कहिके फेर समाअुणदे हन।
३ब्रहमा दा इक दिन भाव अंगिंत समेण दे तुज़ल।
४बुलाए।
*पा:-तूरन सीस चरन पर धरो।
५चली।

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