Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 253 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६८

परम धाम१ मैण करौण पयान ॥३८॥
हरख शोक मन महिण नहिण कोअू।
तूं परतज़ख रूप मम होअू।
देह अछत२ गानी जग ऐसे।
भरो कुंभ सागर रहि जैसे३ ॥३९॥
घट फूटे जल सोण जल मिलै।
तन तजि गानी ब्रहम सोण रलै।
आवनि नहिण मेरो नहिण जावौण।
परमातम निज रूप समावौण ॥४०॥
पुन सिज़खन सोण गिरा अुचारी।
अुठि आनहु गागर भरि बारी४।
अमर दास इशनान करावहु।
सभिसंगति को मेल करावहु ॥४१॥
दोनहु पुज़त्र हकारन करो५।
मम तारी है देरि न धरो।
ससकारन की सौज बिसाला।
करहु इकज़त्र सकल ततकाला ॥४२॥
पैसे पंच नलेर अनावहु।
फूलन माल बिसाल बनावहु।
तिल चंदन केसर को आनहुण।
कुशा पुनीत लीपबो ठानहु६ ॥४३॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे श्री अंगद समावन प्रसंग
बरनन नाम खशटबिंसती अंसू ॥२६॥


१सज़च खंड ळ।
२हुंदिआण।
३जल दा भरिआ घड़ा समुंदर विच जिज़कुर रहिणदा है।
४जल दी।
५बुलाओ।
६दज़भ पविज़त्र (लिआओ ते) लेपण करो।

Displaying Page 253 of 626 from Volume 1